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Monday 22 July 2013

अध्याय 3 श्लोक 3 - 19 , BG 3 - 19 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 3 श्लोक 19
अतः कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से परब्रह्म (परम) की प्राप्ति होती है |



अध्याय 3 : कर्मयोग

श्लोक 3 . 19

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः || १९ ||


तस्मात् - अतः; असक्तः – आसक्तिरहित; सततम् – निरन्तर; कार्यम् – कर्तव्य के रूप में; कर्म – कार्य; समाचर – करो; असक्तः – अनासक्त; हि – निश्चय ही; आचरन् – करते हुए; कर्म – कार्य; परम् – परब्रह्म को; आप्नोति – प्राप्त करता है; पुरुषः – पुरुष, मनुष्य |




 
भावार्थ



अतः कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से परब्रह्म (परम) की प्राप्ति होती है |
 
 तात्पर्य



भक्तों के लिए श्रीभगवान् परम हैं और निर्विशेषवादियों के लिए मुक्ति परम है | अतः जो व्यक्ति समुचित पथप्रदर्शन पाकर और कर्मफल से अनासक्त होकर कृष्ण के लिए या कृष्णभावनामृत में कार्य करता है, वह निश्चित रूप से जीवन-लक्ष्य की ओर प्रगति करता है | अर्जुन से कहा जा रहा है कि वह कृष्ण के लिए कुरुक्षेत्र के युद्ध में लड़े क्योंकि कृष्ण की इच्छा है कि वह ऐसा करे | उत्तम व्यक्ति होना या अहिंसक होना व्यक्तिगत आसक्ति है, किन्तु फल की आसक्ति से रहित होकर कार्य करना परमात्मा के लिए कार्य करना है | यह उच्चतम कोटि का पूर्ण कर्म है, जिसकी संस्तुति भगवान् कृष्ण ने की है |





नियत यज्ञ, जैसे वैदिक अनुष्ठान, उन पापकर्मों की शुद्धि के लिए किये जाते हैं जो इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से किये गए हों | किन्तु कृष्णभावनामृत में जो कर्म किया जाता है वह अच्छे या बुरे कर्म के फलों से परे है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में फल के प्रति लेशमात्र आसक्ति नहीं रहती, वह तो केवल कृष्ण के लिए कार्य करता है | वह समस्त प्रकार के कर्मों में रत रह कर भी पूर्णतया अनासक्त रहता है |





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