Translate

Monday 29 July 2013

अध्याय 5 श्लोक 5 - 11 , BG 5 - 11 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 11

योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |

अध्याय 5 श्लोक 5 - 10 , BG 5 - 10 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 10

जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्र्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है |

Sunday 28 July 2013

अध्याय 5 श्लोक 5 - 8 , 9 , BG 5 - 8 , 9 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 8-9

दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्र्वास लेते हुए भी अपने अन्तर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता | बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखे खोलते-बन्द करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त है और वह इन सबसे पृथक् है |

अध्याय 5 श्लोक 5 - 7 , BG 5 - 7 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 7

जो भक्तिभाव में कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं | ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता |


अध्याय 5 श्लोक 5 - 6 , BG 5 - 6 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 6

भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता | परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्र्वर को प्राप्त कर लेता है |


अध्याय 5 श्लोक 5 - 5 , BG 5 - 5 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 5

जो यह जानता है कि विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप देखता है |


अध्याय 5 श्लोक 5 - 4 , BG 5 - 4 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 4

अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं | जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है |


अध्याय 5 श्लोक 5 - 3 , BG 5 - 3 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 3

जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है | हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है |


अध्याय 5 श्लोक 5 - 2 , BG 5 - 2 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 2

श्रीभगवान् ने उत्तर दिया – मुक्ति में लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं | किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है |


अध्याय 5 श्लोक 5 - 1 , BG 5 - 1 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 5 श्लोक 1

अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं | क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?


Saturday 27 July 2013

अध्याय 4 श्लोक 4 - 42 , BG 4 - 42 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 42

अतएव तुम्हारे हृदय में अज्ञान के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट डालो | हे भारत! तुम योग से समन्वित होकर खड़े होओ और युद्ध करो |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 41 , BG 4 - 41 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 41

जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्यज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है | हे धनञ्जय! वह कर्मों के बन्धन से नहीं बँधता |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 40 , BG 4 - 40 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 40

किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगवद्भावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते है | संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 39 , BG 4 - 39 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 39

जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है |



अध्याय 4 श्लोक 4 - 38 , BG 4 - 38 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 38

इस संसार में दिव्यज्ञान के सामान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है | ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्व फल है | जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है, वह यथासमय अपने अन्तर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है |



अध्याय 4 श्लोक 4 - 37 , BG 4 - 37 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 37
जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी तरह हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है ।

अध्याय 4 श्लोक 4 - 36 , BG 4 - 36 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 36
यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुख-सागर को पार करने में समर्थ होगे ।

अध्याय 4 श्लोक 4 - 35 , BG 4 - 35 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 35
स्वरुपसिद्ध व्यक्ति से वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुकने पर तुम पुनः कभी ऐसे मोह को प्राप्त नहीं होगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा के अंशस्वरूप हैं, अर्थात् वे सब मेरे हैं |

अध्याय 4 श्लोक 4 - 34 , BG 4 - 34 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 34
तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरुपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है |

अध्याय 4 श्लोक 4 - 33 , BG 4 - 33 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 33
हे परंतप! द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है | हे पार्थ! अन्ततोगत्वा सारे कर्मयज्ञों का अवसान दिव्य ज्ञान में होते है |

अध्याय 4 श्लोक 4 - 32 , BG 4 - 32 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 32
ये विभिन्न प्रकार के यज्ञ वेदसम्मत हैं और ये सभी विभिन्न प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हैं | इन्हें इस रूप में जानने पर तुम मुक्त हो जाओगे |

अध्याय 4 श्लोक 4 - 31 , BG 4 - 31 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 31
हे कुरुश्रेष्ठ! जब यज्ञ के बिना मनुष्य इस लोक में या इस जीवन में ही सुखपूर्वक नहीं रह सकता, तो फिर अगले जन्म में कैसे रह सकेगा?

अध्याय 4 श्लोक 4 - 30 , BG 4 - 30 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 30
ये सभी यज्ञ करने वाले यज्ञों का अर्थ जानने के कारण पापकर्मों से मुक्त हो जाते हैं और यज्ञों के फल रूपी अमृत को चखकर परम दिव्य आकाश की ओर बढ़ते जाते हैं |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 29 , BG 4 - 29 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 29

अन्य लोग भी हैं जो समाधि में रहने के लिए श्र्वास को रोके रहते हैं (प्राणायाम) | वे अपान में प्राण को और प्राण में अपान को रोकने का अभ्यास करते हैं और अन्त में प्राण-अपान को रोककर समाधि में रहते हैं | अन्य योगी कम भोजन करके प्राण की प्राण में ही आहुति देते हैं |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 28 , BG 4 - 28 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 28

कठोर व्रत अंगीकार करके कुछ लोग अपनी सम्पत्ति का त्याग करके, कुछ कठिन तपस्या द्वारा, कुछ अष्टांग योगपद्धति के अभ्यास द्वारा अथवा दिव्यज्ञान में उन्नति करने के लिए वेदों के अध्ययन द्वारा प्रबुद्ध बनते हैं |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 27 , BG 4 - 27 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 27

दूसरे, जो मन तथा इन्द्रियों को वश में करके आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हैं, सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा प्राणवायु के कार्यों को संयमित मन रूपी अग्नि में आहुति कर देते हैं |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 26 , BG 4 - 26 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 26

इनमें से कुछ (विशुद्ध ब्रह्मचारी) श्रवणादि क्रियाओं तथा इन्द्रियों को मन की नियन्त्रण रूपी अग्नि में स्वाहा कर देते हैं तो दूसरे लोग (नियमित गृहस्थ) इन्द्रियविषयों को इन्द्रियों की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 25 , BG 4 - 25 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 25

कुछ योगी विभिन्न प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओं की भलीभाँति पूजा करते हैं और कुछ परब्रह्म रूपी अग्नि में आहुति डालते हैं |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 24 , BG 4 - 24 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 24

जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन रहता है, उसे अपने आध्यात्मिक कर्मों के योगदान के कारण अवश्य ही भगवद्धाम की प्राप्ति होती है, क्योंकि उसमें हवन आध्यात्मिक होता है और हवि भी आध्यात्मिक होती है ।


अध्याय 4 श्लोक 4 - 23 , BG 4 - 23 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 23

जो पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित है, उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं |


अध्याय 4 श्लोक 4 - 22 , BG 4 - 22 Bhagavad Gita As It Is Hindi

 अध्याय 4 श्लोक 22

जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं |